नीतीश कुमार ने जिस हड़बड़ी में शराबबंदी लागू किया गया उसमें लोकशाही नहीं, राजशाही अंदाज की झलक दिखी : नवल किशोर यादव
शराबबंदी: ‘शाही जिद’ में समा गया राज्य का आर्थिक हित!
न नफा-नुकसान का आकलन-सर्वेक्षण और न कार्यान्वयन की कोई ठोस नीति-रणनीति,मन में आया कर दिया फरमान जारी
पूर्णियां। सूबे में नीतीश कुमार की शराबबंदी फेल कर गई है।नीतीश कुमार ने जिस हड़बड़ी में शराबबंदी लागू किया गया उसमें लोकशाही नहीं, राजशाही अंदाज की झलक दिखी। उक्त बात कद्दावर यादव नेता नवल किशोर यादव ने अपने फर्म हाऊस पूर्णियां में पत्रकारों से बातचीत के दौरान कही। उन्होंने कहा कि
सामान्य समझ में हठी इतने हैं नीतीश कुमार कि आमतौर पर उनकी जिद के सामने राज्य का हित कोई मायने नहीं रखता.
लगभग साढ़े सात वर्षों से लागू ‘सख्त शराबबंदी कानून’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. हर माह-दो माह पर अवैध शराब से सामूहिक मौत हो रही है, नीतीश कुमार की संवेदनहीनता टूट नहीं रही है. सामूहिक मौत का अद्यतन मामला सीतामढ़ी और गोपालगंज जिलों का है, जो शराबबंदी की विफलता की पुष्टि करता है. सैद्धांतिक रूप से ‘शराबबंदी’ सामाजिक क्रांति है.
इसके बहुत फायदे हैं, कुछ-कुछ दिख भी रहे हैं. इसकी मुकम्मल सफलता निश्चित रूप से सामाजिक बदलाव का वाहक बन जाती. लेकिन, वैसा हुआ नहीं. कारण अनेक हैं. ‘शराब आत्मा और शरीर दोनों का विनाश कर देती है’ यह सीख देते हुए महात्मा गांधी ने लोगों से इसका त्याग करने का आग्रह किया था. कुछ ने माना, कुछ ने नहीं माना. गांधी जी लाठी तो नहीं बरसाने लग गये थे!
सीधे लाठी कपार पर !
इस मामले में खुद को महात्मा गांधी के ‘उत्तराधिकारी’ के रूप में स्थापित करने को प्रयासरत नीतीश कुमार ने समाज से कोई अनुनय विनय नहीं किया. सीधे लाठी कपार पर! शराब बनाने-बेचने-रखने और पीने-पिलाने, यहां तक कि खाली बोतल मिलने पर भी कठोरतम दंड के प्रावधान वाली ‘पूर्ण शराबबंदी’ लागू कर दी. काम अच्छे हैं,
समाज के हित में हैं. इसलिए अंगुली नहीं उठी. लेकिन, जिस हड़बड़ी में इसे लागू किया गया उसमें लोकशाही नहीं, राजशाही अंदाज की झलक दिखी. न नफा-नुकसान का आकलन-सर्वेक्षण और न कार्यान्वयन की कोई ठोस नीति-रणनीति. मन में आया, फरमान जारी कर दिया.
ये तरीका त्रुटिपूर्ण है
वैसे, शराबबंदी की बाबत नीतीश कुमार की नीयत में खोट नहीं है. नीति व निर्णय लोकहितकारी है, पर रणनीति और उसे लागू करने का तरीका त्रुटिपूर्ण है. इसमें छेद ही छेद हैं. विपक्ष, समाज के प्रभुत्व वर्ग, तमाम तरह के सर्वेक्षण और यहां तक कि शीर्ष अदालत ने भी इसकी तसदीक की है. लेकिन, ‘शाही जिद’ के सामने सब महत्वहीन!
यह स्थापित तथ्य है कि गांधी की राह चलकर ही दारूबंदी के लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है. वह राह सामाजिक जागरूकता की है. पर, दिक्कत यहां यह है कि राजनीति लोगों को जागरूक होने नहीं देती. लोग जागरूक होंगे तो सियासत के सूत्र समझ जायेंगे.
मुआवजे की चादर
सत्ता के समीकरण बदल जायेंगे. अपने पांव में कोई खुद कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहेगा! कठोरतम दंड के प्रावधानों के तहत निर्लज्ज मुनादी कर दी गयी ‘पियोगे तो मरोगे’. लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘असफल शराबबंदी’ के दुष्परिणाम स्वरूप बिछी लाशों पर शासन की ऐसी संवेदनहीनता! मरने वालों ने कानून तोड़ा.
इसका मतलब यह नहीं कि उनके वारिसों, आश्रितों के प्रति असंवेदनशीलता दिखायी जाये. यहां यह भी तो मायने रखता है कि कानून तोड़ने की प्रेरणा कहां से मिली? ‘दारू मुक्त बिहार’ में अवैध शराब की सहज उपलब्धता से ही न? इस उपलब्धता के लिए जिम्मेवार कौन है?